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Wednesday, June 26, 2019

जनतंत्र की चुनौतियां और मीडिया की स्थिति, अनिल प्रकाश से साभार

जनतंत्र की चुनौतियां और मीडिया की स्थिति,
अनिल प्रकाश से साभार

जनतंत्र अगर सिर्फ राजनीतिक ढांचा भर हो और उसमें जनतांत्रिक संस्कृति का अभाव हो तो वह प्रभुत्वशाली वर्गों,समूहों, सैन्यशक्ति सम्पन्न राष्ट्रों,कारपोरेट घरानों और तानाशाही प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की कठपुतली भर बनकर रह जाता है।भारत में और कमोबेश दुनियाभर में आज यही स्थिति विद्यमान है।आर्थिक विकास की गलत नीतियों के कारण विषमता बढ़ती जा रही है और दुनिया आर्थिक मंदी झेल रही है।बाजार और संसाधनों के लिए भारी खींचतान चल रही है।इस परिस्थिति में  ट्रेड वार भी शुरू हो गया है।ऐसे दौर में अनेक देशों में कट्टरपंथी,नस्लवादी, साम्प्रदायिक,अनुदार शक्तियां सर उठाने लगी हैं।जनता को उनकी बुनियादी समस्यायों से भटकाकर नकली मुद्दों में उलझाने में ये शक्तियां बहुत हद तक कामयाब होती दिख रही हैं।इसके साथ ही प्रकृतिक संसाधनों(जल,जमीन,जंगल,खदान, वायुमण्डल)के अन्धाधुन्ध दोहन के कारण हवा,पानी,जमीन,नदियां,भूमिगत जलस्रोत सब बर्बादी के शिकार हैं।धरती के बढ़ते तापमान के कारण पूरी धरती के जीवजंतुओं,वनस्पतियों और मानव जाति भयानक जाति के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है।इसलिए संकट से निकलने के लिए ऐसी विकास नीति की जरूरत है जो आर्थिक समानता,समाजिक न्याय और प्रकृति रक्षण की ओर उन्मुख हो।मनुष्य और प्रकृति के मधुर सम्बन्धों की बुनियाद पर समता मूलक जनतांत्रिक समाज बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।हालांकि बहुत देर हो चुकी है और  महाप्रलय की आहट स्पष्ट सुनाई पड़ रही है।तत्काल नई शुरुआत करना जरूरी है।

1977 में खादीग्राम,जमुई में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था  और एकदम सही कहा था कि " जब तक सामाजिक और आर्थिक विषमता मौजूद है तानाशाही का खतरा मंडराता रहेगा।तानाशाही के बीज हमारी समाज व्यवस्था में हैं।"  तब हमलोग आपातकाल के काले दिनों के बाद जेलों से निकलकर बाहर आए थे।आज भी हमारा देश उस समस्या से उबरा नहीं है।देश की आर्थिक संपन्नता बढ़ी है लेकिन असमानता अत्यधिक बढ़ती जा रही है।लोगों का असन्तोष जिस दिन फूट पड़ेगा उस दिन पुलिस या फौज भी उसे दबा नहीं पाएगी।विश्व इतिहास साक्षी है कि आमजन को ज्यादा दिन तक नकली मुद्दों और झूठी भावनाओं में भरमा कर नहीं रखा जा सकता।हिटलर का नृशंस दौर भी समाप्त हुआ ही था।ब्रिटिश साम्राज्य के लूट खसोट का सिलसिला आखिर समाप्त हो ही गया।स्वतंत्रता,न्याय और समानता की चाह मानव जाति की सनातन चाह है।यह कभी समाप्त होनेवाली नहीं है।

जनतांत्रिक संस्कृति के मूल्यों के विस्तार के बिना हम सही जनतांत्रिक राजनीति खड़ी नहीं कर सकते।परिवार में भी जनतांत्रिक संस्कृति का अभाव दिखता है।समाज में भी, स्त्री पुरुष के बीच भी समानता और जनतांत्रिक व्यवहार का अभाव है।हमारी गालियां या तो स्त्री को नीचा दिखाने वाली होती हैं या अपने से छोटी जाति को नीचा दिखानेवाली।एक बार नेपाल के जनतांत्रिक आंदोलन के शीर्षस्थ नायक बीपी कोइराला जेपी से मिलने पटना आए थे।1979 की बात होगी।वे देवेंद्र बाबू,(जेपी के मित्र और पूर्व वीसी देवेंद्र प्रसाद सिंह) के यहां रुके थे।शैलजा आचार्य भी थी।तब नेपाल के राजा की पुलिस उनकी जान के पीछे पड़ी थी।वे तब नेपाल में संवैधानिक राजतन्त्र(ब्रिटेन की तरह का जनतंत्र जहां राजा भी है)की मांग कर रहे थे।हमने उनसे पूछा-वीपी,आप तो सोशलिस्ट हैं फिर नेपाल के जनतंत्र में राजा की क्या जरूरत है।बीपी कोइराला ने तब कहा कि-"नेपाल की जनता राजा को भगवान मानती है।अगर नेपाली कांग्रेस राजा विहीन जनतंत्र की मांग करेगी तो जनता उनके विरुद्ध हो जाएगी।" और एक समय आया जब नेपाली जनता में जनतांत्रिक चेतना का इतना विस्तार हुआ कि जनता ने राजतन्त्र और राजा को उखाड़ फेंका। ठीक वही हाल अभी भारत में है।ज्यादातर राजनीतिक दलों में आंतरिक जनतंत्र का घोर अभाव है।नेताओं के बेटे बेटियां बिना किसी  जमीनी काम या अनुभव के सांसद,विधायक,मंत्री,और पार्टी के प्रमुख बन जाते हैं।कुछ लेफ्ट पार्टियों को छोड़कर अधिकांश दल इस व्याधि से ग्रस्त हैं।यह इसलिए सम्भव है कि अभी जनता में लोकतांत्रिक चेतना का सीमित विकास ही हो पाया है ।
एक और गम्भीर सवाल यह खड़ा है कि की माफिया और अपराधी तत्वों को टिकट देने में ज्यादातर दलों को कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती।उनका एक ही तर्क होता है कि वे जीतनेवाले समर्थ व्यक्ति को टिकट देते हैं।जनता भी अपनी जाति के अपराधी या माफिया को वोट देने में संकोच नहीं करती।अपनी जाति का ईमानदार और शरीफ उम्मीदवार भी मौजूद हो तो भी उसको समर्थन नहीं मिलता।ऐसे में जनतंत्र का ढांचा बेजान और निर्जीव ही तो रहेगा।फिर लोग कहते हैं कि जल संकट है,बच्चे पटपटा कर कुपोषण के कारण और उचित चिकित्सा के अभाव में मर रहे है लेकिन सांसद, विधायक को कोई मतलब नहीं है।अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने पर परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।
अब मीडिया को देखिए, ज्यादातर हिंदी के अखबारों को सरकारी विज्ञापन के बल पर जेब में रखने की कोशिश जग जाहिर है। कॉरपोरेट घरानों के प्रभाव में बहुत सी जनहित की खबरें दबा दी जाती हैं।कुछ अपवादों को छोड़कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी यही हाल है। 1990 के उदारीकरण के दौर के बाद से शनै शनै यह प्रवृत्ति बढ़ती चली गई।अब तो स्थिति बदतर हो चुकी है। सोशल मीडिया से कुछ सही खबरें फैलती हैं और उसका दबाव भी पड़ता है।लेकिन वहां भी झूठ और गंदगी फैलानेवालों का झुंड(पेड) रायता फैलाता रहता है।ऐसे कठिन दौर में सचेत और जनपक्षी लोगों को अपना अपना दायित्व निभाना ही पड़ेगा।ऐसी कोशिशें जारी हैं।लोग अपनी जान और कैरियर को दांव पर रखकर भी कोशिश में लगे है ।ये मीडियाकर्मी भी हैं,जज भी,ऐक्टिविस्ट भी,लेखक भी और आम युवा भी।ऐसे लोगों को सलाम। कुहासा जरूर छंटेगा।

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