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Monday, March 10, 2025

वर्तमान में, सामने के समय से सामना करने के अपेक्षा कन्नि कटाने वाले का पीछा,भूत करता है।

वर्तमान में, सामने के समय से सामना करने के अपेक्षा कन्नि कटाने वाले का पीछा,भूत करता है।भूत का अर्थ बीते हुए अपने समय से, यादों से और उन खट्टे मीठे लम्हों -अनुभवों से है, जिसमें डूब कर जीना एक संतोषप्रद और आत्मानुभव से परिपूर्ण जीवन देता है।

Tuesday, March 4, 2025

6.9 "मेरा मत" ईश्वर की अवधारणा 9वां आलेख। ईश्वर की अवधारणा के पांच फैक्टर हैं:

6.9 "मेरा मत" ईश्वर की अवधारणा 9वां आलेख। ईश्वर की अवधारणा के पांच फैक्टर हैं:- (१) विचार एक बल है। (२) सनातन जीवन शैली का परमालय में स्थापित परमानन्द और परमपींड की आकृति। (३) सनातन से पनपे वाद मसलन हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि का काल डिवीजन (४) परमानन्द आकृति में विचार बल का संश्लेषण और (५) कड़ोरों अरबों वर्षों तक उक्त संश्लेषण प्रक्रिया का निरंतर जारी रहना,जिससे एक नई उर्जा का प्रकटीकरण हुआ। मुख्यतः इन्हीं बिन्दुओं पर इस आलेख में विश्लेषण किया जाएगा। आज से २०००० साल पहले सनातन जीवन शैली को हीं हिन्दू हिन्दू कहा जाने लगा।तब वह हिन्दू प्रकृति परक जीवन पद्धति ही थी, सनातन का पर्याय हीं हिन्दू था।उस समय किसी भी धर्म की अवधारणा नहीं थी। सनातन को हिंदू कहनेवाले आज से २३०० वर्षों पहले मौर्य डयनेस्टी के बाद के सुन्ग डयनेस्टी के सम्राट पुष्यमित्र सुंग के कार्यकाल में या तीन चार सदी पहले धर्म शब्द की उत्पत्ति हुई।तब से इसे हिन्दू धर्म कहकर ढ़ोल नगाड़े पिटे जाने लगे। सनातन- हिन्दू और आज का प्रचलित धर्म- हिन्दू दोनों अलग अलग तरह का कन्सेप्ट है। धर्म- हिन्दू में इतिहास के यशस्वी रजाओं को देवता और दानव बनाया, और कहानियाँ लिखी जाने लगी। चुकि उसे जैनिज्म और बुद्धिज्म को दबाकर उक्त हिन्दू धर्म का प्रचार प्रसार करना था,इसलिए वे ऐतिहासिक और वर्तमान यशस्वी राजाओं को महिमामंडन करने के लिए हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का कवियों,लेखकों को प्रोत्साहित कर लिखवाया गया। इतना ही नहीं विशिष्ट तारा,ग्रहों, उपग्रहों को, खतरनाक और हिन्सक जानवरों को देवताओं और अत्यधिक उपयोगी पशुओं को उन कथाओं, ग्रन्थों में उचित स्थान दिये गए और समन्वित किया गया अधिकतर पशु प्राणी को उन देवी देवताओं का वाहन बना दिया। परमालय और बाद के आनंद बिहार के जैसा, बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण किया गया। मन+ दिर= मंदिर अर्थात मन का तात्पर्य विचार + "दिर'" शब्द से संबंधित परिणामबिना बिलंब के, तुरंत, शीघ्र, तत्क्षण, फ़ौरन ।बना।वहीं से मुर्ति पूजा की शुरूआत है। ए मूर्तियां देश काल, और परिस्थितियों के अनुरूप अलग अलग आकृतियों में निर्मित हुआ। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि मेरा छोटा बेटा विशाल, जब मैं मोतियाबिंद का आपरेशन करवाने नेपाल गया था तो वहाँ हनुमान जी की मूर्ति देखकर कहा था," डैडी, यहाँ के हनुमान जी का मुंह अपने यहाँ के हनुमान जी से अलग है !" यह सुनकर मैंने भी गौर किया और सोंचने लगा। खैर,यह सबकुछ कवि, लेखकों की कल्पना की देन है। वातावरण ऐसा निर्मित हुआ कि उन अकृतिओं में क्रमशः कड़ोडो़ं मानव की भावना और विचार-वल का संश्लेषण हुआ। विचार तरंगों एक बिन्दु पर इकट्ठा होते हीं एक नई उर्जा की उत्पत्ति हुई। इसे हीं ईश्वर, परमेस्वर, परमेस्वरी गौड गौडेस कहा जाता है। अतः यहाँ सुनिश्चित करना चाहिए कि बिचार एक बल है,जो तरंगों से संचरित होता है। यह बल किन परिस्थितियों में ईश्वरीय उर्जा में बदल जाता है,इसे समझने के लिए हिन्दुइज्म , जैनिज्म, बुद्धिज्म आदि विभिन्न मतों का काल विभाजन पर प्रकाश डालना आवश्यक है। सनातनी हिंदू की अवधारणा की मान्यता है कि शिव,विष्णु और ब्रह्मा का काल है।{ देखिए ब्रह्मा विष्णु शिव जी की वास्तविक उम्र ये है :ब्रह्मा जी – 72000000 (सात करोड़ बीस लाख) चतुर्युग,विष्णु जी- 504000000 (पचास करोड़ चालीस लाख) चतुर्युग और शिवजी- 3528000000 (तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख) चतुर्युग है।जैनिज्म मत के अनुसार काल- विभाजन जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि,हर वस्तु का मान,आयु,बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि,हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल के भेद - सुषमा-सुषमा काल, सुषमा काल, सुषमा-दुःषमा काल, दुःषमा-सुषमा काल, दुःषमा काल एवं दुःषमा-दुःषमा काल। ये छः भेद अवसर्पिणी काल के हैं। इससे विपरीत उत्सर्पिणी काल के भी छः भेद हैं। दुःषमा- दुःषमा काल, दुःषमा काल, दुःषमा-सुषमा काल, सुषमा-दुःषमा काल, सुषमा काल एवं सुषमा-सुषमा काल। (1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-सुषमा काल)।(2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा काल)।(3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-दुःषमा काल)।(4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (दुःषमा-सुषमा काल)।(5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा काल)।(6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा-दुःषमा काल) इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय होता है। वौद्धिज्म मत के अनुसार बुद्धिज्म में काल खंड- एक नियमित कल्प लगभग 16 मिलियन वर्ष लंबा (16,798,000 वर्ष) होता है, और एक छोटा कल्प 1000 नियमित कल्प या लगभग 16.8 अरब वर्ष लंबा होता है। इसके अलावा, एक मध्यम कल्प लगभग 336 अरब वर्ष का होता है, जो 20 छोटे कल्पों के बराबर होता है। एक महान कल्प चार मध्यम कल्प या लगभग 1.3 ट्रिलियन वर्ष है। यजिदी के अनुसार यजीदी धर्म .प्राचीन विश्व की प्राचीनतम धार्मिक परंपराओं में से एक है। यजीदियों की गणना के अनुसार अरब में यह परंपरा 6,763 वर्ष पुरानी है अर्थात ईसा के 4,748 वर्ष पूर्व यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों से पहले से यह परंपरा चली आ रही है। मान्यता के अनुसार यजीदी धर्म को हिन्दू धर्म की एक शाखा माना जाता है।}उपरोक्त विभिन्न मतों के काल- खंडों का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक है, ताकि वर्तमान विज्ञान और पुरातात्विक विश्लेषण के आधार पर सभ्यता- संस्कृति का काल निर्धारण में ईश्वर की अवधारणा को व्याखायित करने में आज का विज्ञान उलझा हुआ है। उसे सही मार्ग दर्शन के लिए परमालय और परमानन्द की आकृति को स्मरण करना होगा। जिससे इन मतों के काल- खंडों के बीच समन्वय स्थापित करना होगा। क्योंकि सभी मतों में एक कौमन बात है कि सब में कड़ोडो़ं- अरबों वर्षों पहले का अभिमत है। और यहाँ {वेदों के अनुसार ईश्वर कौन है? वेदों के अनुसार वह शक्ति बल तथा क्रिया जिसकी वजह से संसार का निर्माण हुआ है वही ईश्वर है. क्योंकि वह शक्ति हमेशा से थी और हमेशा रहेगी इसलिए वह शाश्वत है. वेदों के अनुसार ईश्वर का सबसे उत्तम नाम ॐ है. ईश्वर वह शक्ति है जो बिना भेदभाव के कर्म के अनुसार प्रत्येक प्राणी जीव आदि को कर्म फल प्रदान करती है. . बुद्धिज्म में काल खंड- एक नियमित कल्प लगभग 16 मिलियन वर्ष लंबा (16,798,000 वर्ष) होता है, और एक छोटा कल्प 1000 नियमित कल्प या लगभग 16.8 अरब वर्ष लंबा होता है। इसके अलावा, एक मध्यम कल्प लगभग 336 अरब वर्ष का होता है, जो 20 छोटे कल्पों के बराबर होता है। एक महान कल्प चार मध्यम कल्प या लगभग 1.3 ट्रिलियन वर्ष है}। उपरोक्त { गुगल के सौजन्य से प्राप्त डाटा}सभी मतों और मान्यताओं के अनुसार जो सब में कौमन है:- (१) मानव का प्रादुर्भाव अरबों वर्षों पहले हुआ। वहीं से परमालय और परमानंद की आकृति के साथ परमपींड का उदभव है। वहीं बैठकर परमानंद के रोमांचक अवस्था तक पहुँचने के लिए विभिन्न मार्ग की खोज शुरू हुई। जिसके लिए आंखों और कान का सहारा लिया गया। आंख से दृश्य और कान से श्रव्य,और फिर दोनों के मिश्रण का सहारा लिया गया। जिससेे कला, संगीत और नृत्य का अविर्भाव हुआ। ये सब कुछ मूल प्रकृति की देन है, जब अक्षर/शब्द और भाषा नहीं था। यह सब अरबों खरबों वर्षों का क्रमिक विकास है। (२) सबका काल- विभाजन अपना अपना है। जिसमें सबसे पुराना सनातन हिन्दू का है। इसी का आधार लेकर ईश्वर की अवधारणा का विश्लेषण अगले आलेख में होगा। और धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता का गणितीय संबद्ध भी होगा। फार्मुला:-धर्म संस्कृति का समानुपाति एवं सभ्यता का व्युत्क्रमानुपाती होता है। (क्रमशः) samalak.blogspot.com, Mo.No.+917209834500, लेखक- अनिल कुमार सिन्हा ,25/01/2024 email id-samalak1984@gmail.com पता-समालक सदन ,पुरनचंदलेन,कल्याणी , मुजफ्फरपुर-842001,बिहार

Sunday, February 23, 2025

7.0 "मेरा मत" ईश्वर की अवधारणा १०वां आलेख।

7.0 "मेरा मत" ईश्वर की अवधारणा १०वां आलेख। पिछले आलेख में छोटे लड़के विशाल ( हौवी) का पुछना कि नेपाल में हनुमान जी का चेहरा अपने यहाँ के हनुमान जी के चेहरे से बदला हुआ क्यों है? यह प्रश्न १२ साल के लड़के का था और बड़े लड़के की सोंच कि ये मुर्तिया काल्पनिक है, और पूजा पाठ ढकोसला है। क्योंकि हिन्दू धर्म के आधार वेद, पुरान, महाकाव्य मसलन महाभारत, रामायण आदि सब के सब पुष्यमित्र सुन्ग के समय रचा गया है। यहाँ तक कि धर्म शब्द की अवधारणा और उत्पत्ति भी उसी के समकालीन या उसके बाद की है। इन्हीं बातों का अनुसरण छोटा लड़का भी करने लगा है। मुझे 2022/23 में लगातार दोनों के साथ रहना पड़ा है। विशाल मुझे प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी कराया। दोनों इन्जीनियर है। ये घटनाएं मुझे " मेरा मत " निर्धारण करने की प्रेरणा दिया। ये आलेख इसी का परिणाम है। पूर्व इसके कि ईश्वर की अवधारणा पर लिखूँ, यहाँ दर्शन अर्थात दृश्य/दृष्टि (आंख) से उत्पन्न चित्र कला-मूर्ति कला, श्रवण अर्थात सुनने (कान) और मुंह से उत्पन्न संगीतऔर आंख तथा कान के संयुक्त योग से उत्पन्न नृत्य कला कौ माने तो उचित जंचता है। कहने का तात्पर्य यह कि अनपढ़ आदि मानवों के, अंगों द्वारा उकेरे गए सतत् प्रयास और करोड़ों / अरबों वर्षों का क्रमिक उत्थान से इनका आज यहाँ तक पहुचना संभव हुआ है। नाक के माध्यम से हीं श्वास की साधना से योग का भी क्रमिक विकास अरबों वर्षों में हुआ है। लिपि भी चित्र के माध्यम से ही पनपा और एक परिष्कृत रूप में विकसित हुआ। यह अलग बात है कि मुंह से स्वभाविक उच्चरित ध्वनि से लिपि बना या लिपि निर्माण के बाद उसका उच्चारण निर्धारित किया गया, यह शोध का विषय है। शुन्य से नौ तक का अंक भी मानव अंगों की अवधारणा है, जिसे ऊपरी अंगों की विभिन्न मुद्राओं के रेखा चित्र से उकेरा गया है। मसलन मुट्ठी बांधकर एक हाथ ऊपर उठाने १ बनेगा, दोनों हाथों को खोलकर ऊपर उठाऐं और वायीं तथा दायीं तरफ लाएंं / दाहिने और ऊपर खड़ा करें २,५,८ बनेगा, दोनों हाथों को र्कौस करके रखें ४ बनेगा, दोनों हाथों के साथ गर्दन का वायें और दाहिने ओर का रेखा चित्र ३ और ६ बनाते हैं, और तर्जनी उंगली इंगित करते हुए गर्दन का रेखा चित्र ९\√ उकेरते हैं।इतना कहने का आशय यह है कि प्रकृति का सब कुछ सभ्यता और,संस्कृति के क्रमिक विकास से ही संभव हुआ है, मूल रूप में ऐ मानव अंग से ही तो है। जिनका शब्द और भाषाओं की अवधारणा के बहुत पहले निर्माण शुरु हुआ है। मसलन् मानव मष्तिक का खुशियाँ तलाशते हुए‌ विकसित होते जाना और विचारों का समय समय पर और अधिक जानकारी ग्रहण करने की स्थिति और उनका क्रियान्वयन का अभ्यास,सभ्यता और संस्कृति को क्रमशः विकसित किया है। इन्हीं में से एक प्रक्रिया है जो परमालय और परमानंद की आकृति में मानवों के मष्तिष्क का केन्द्रीकरण / विचारों का संश्लेषण और अधिकतम आनंद प्राप्त करने की चाह सभ्यता में सबकुछ का निर्माण किया है। वहीं जिस मुद्रा में निरंतर अंतह लीन करोड़ों करोड़ मानव की चेष्टाऐं केन्द्रित हुई है, विचारों का संश्लेषण हुआ , वहीं एक नई उर्जा का निर्माण हुआ, (जैसे प्रकाश के लेन्स से ताप ऊर्जा का निर्माण होता है), विचारों का संश्लेषण जिसका निरंतर संवर्धन होता चला गया। औरमानव, विचार की तल्लीनता में उस उर्जा को आस पास महसूस करने लगा। जिससे उन्हें सुकून और शांति मिलता था। कालांतर में उस निर्मित ऊर्जा को हीं ईश्वर कहा जाने लगा। जो कि सर्वमान्य था और आज भी है। अतः मानव से ही ईश्वर की उत्पत्ति हुई। मानव ने ही कथा, कहानी और मिथकों का कालांतर में निर्माण किया, चित्र उकेरे गए, मूर्ति बने, परमालयों को मंदिर कहा गया, उसमें साकार/निराकार संजीविता का बोध कराया गया और पूजा पाठ होने लगा। जिनका उल्लेख विगत आलेखों में विस्तार से है। यही ईश्वर अवधारणा का मूल है जो मानव कृत है। (क्रमशः)

Tuesday, February 18, 2025

भारतीय राजनीति और वर्तमान :- लेखक -अनिल कुमार सिन्हा

भारतीय राजनीति और वर्तमान :- लेखक -अनिल कुमार सिन्हा दिल्ली का चुनाव परिणाम जो देश की राजनीति को प्रमाणित करता है, वह है:- आनेवाले कल में वह तीन हिस्सों में बंटा हुआ है,१) कांग्रेस २) भाजपा और ३रा) शेष पार्टियां चाहे वह आज सत्ता में हो या विपक्ष में।आजादी के बाद से कांग्रेस,जिसका ह्रास क्षेत्रीय स्तर पर सन् १९६७ से होना शुरू हुआ। आज तक होता हीं जा रहा है, कभी संभलते संभलते इसके स्थिति में सुधार होता है। लेकिन प्रधानमंत्री नरसिम्हाै है राव और शिबू सोरेन प्रकरण के बाद कभी भी अपने पूर्व की स्थिति अर्थात आजादी के बाद या इंदिरा कांग्रेस के स्वरूप को लौटाने में सफल नहीं हो पाईं है। समय का खेल है, कल क्या होगा कोई नहीं जानता लेकिन सावधानी इसी में है कि देश के वर्तमान राजनीतिक दिशा समझते हुए आगे कदम बढ़ाते रहे, वर्ना "लोकतंत्र खतरे में है" सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों की देश को संयुक्त चेतावनी।।।।

Monday, February 17, 2025

मोरल बुस्ट अप की व्याख्या।

मोरल बुस्ट अप:- १) वह जिसे आप जानते हैं लेकिन उसका आपके प्रति नेगेटिव एप्रोच है। २) वह जिसका आपके प्रति व्यवहार शून्यता है। और ३) वह जो आपको तन,मन,धन से समर्पित होकर किसी समय आपको मोरल बुस्ट अप किया हो। सबकुछ से खुश हाल होने के बावजूद आज उसे प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ने के लिए वैसा ही मोरल बुस्ट अप की खोज है, जैसा वह किया है। निष्कर्ष :-क्या वह प्रतिदान का पात्र है।

Wednesday, February 5, 2025

सभ्यता और संस्कृति का अस्तित्व और श्रोत। लेखक -अनिल कुमार सिन्हा

प्रकृति के सभी प्राणियों में मानव हीं है, जिससे संस्कृति और सभ्यता का अस्तित्व और श्रोत जुड़े हैं, सभ्यता का अस्तित्व उन्मुक्त आनंद से , उसकी खोज और उसके भोग से है, जो देश,काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है,वहीं संस्कृति का अस्तित्व ममता से जुड़ा है, जिससे परिवार, समाज,कबीला और राष्ट् का निर्माण होता है। यह मूलतः मां से उद्बोधित है। यह शाश्वत और अक्षुण्ण है , परिवर्तनशील नहीं है।देश,काल और परिस्थितियों के बदलने के बावजूद अक्षुण्ण है। एक झलक में ऐसा प्रतीत होता है कि अक्षांश और देशांतर या अलग-अलग महादेश की संस्कृति भिन्न है। लेकिन सभी जगह इसका अस्तित्व ममता से ही जुड़ी है। सभ्यता और संस्कृति का श्रोत:- इनके श्रोत पर विद्वानों का जैसा मत हो, पुरातत्व, उत्खनन और शीला लेखों से जोभी विचार वर्तमान में है, लेकिन जैसे ही इन्हें आनंद और ममता से संबद्ध करते हैं, तो बात मानव के उद्भव काल से ही,"जब न अक्षर थे और न शब्द, न तो कला थी और न वाद्ययंत्र संगीत और अभिव्यक्ति के कोई और साधन; कुछ थी तो वह प्रकृति प्रदत्त मानव का कंठस्वर, नासिका से आनेवाली आवाजें, नदियों और हवाओं के बहने से उत्पन्न आवाजें, समतल या उबड़ खाबड़ जमीन और पत्थर की सपाट शिलाएं ,मानव के आंख,हाथ , ऊंगली कान आदि आदि और ब्रह्मांड, " शुरू होता है। तालाब,नदी, झड़ना आदि से पानी, ज़मीन से मिट्टी लेकर गोल, लंबा ठोस आकृति बनाकर/पत्थर या लकड़ी या ऊंगली से समतल जमीन पर आकृति उकेरना आदि मन की बातें करने-कहने का साधन था। अब जरा सोचिए, आनंद और ममता एक दूसरे के कितना पूरक हैं। कैसे! इन दोनों के लिए मानव को प्रकृति ने स्वस्फूर्त वह कौन सा ऐसा साधन दिया ? यहां मानव के उद्भव काल में संभोग और प्रजनन क्षमता है जो सब जीवों में समान रूप से व्यप्त है। मानव की यह विशेषता है कि संभोग क्रिया में मिले आनंद और प्रजनन प्रक्रिया के परिणाम में उभरे ममता को तलाशा और उन्हें विकसित करने में लगातार मानव आजतक लगे हुए हैं। पूर्ण तृप्तिदायक वह आनंद परमानंद कहलाया। जिसे बताने समझाने के लिए गीली मिट्टी से ठोस आकृति बनाते हुए क्रिया को अभिव्यक्त किया गया। उक्त आकृति बनाकर एक स्थान पर इकठ्ठा करने लगे, उस पर एक घरौंदा का निर्माण हुआ।घरौंदे की मकाननुमा आकृति ही परमालय कहा गया, जहां मानव इकठ्ठा होकर परमानंद ढुंढते थे और उक्त आनंद के लिए भिन्न भिन्न मार्ग तलाशने लगे जिससे कला, संगीत, साहित्य बना। यही सभ्यता का श्रोत है , पूज्यनीय है ।वही भग और लिंग की आकृति है और उसका अर्थात सभ्यता का अस्तित्व भी। वहीं बिना यह जाने कि प्रजनन प्रक्रिया संभोग का परिणाम है, पेट की आकृति का धीरे धीर एक सीमा तक बढ़ते जाना , फिर असहनीय वेदना और एक नये प्राणी का आना , जननी से उक्त जीव का पोषण ,आकर्षण और लगाव से ममता का बोध होना उन प्राणियों के लिए लोमहर्षक खुशी का अनुभव होना , जिसे व्यक्त करने केलिए जिस तरीके से जमीन पर रेखा खींच कर और मध्य में अर्ध गोलाकार बनाकर प्रजनन की स्थिति विशेष को दर्शाया गया , वही संस्कृति का श्रोत है। आज भी सभ्यता संस्कृति का वही सिम्बौल है। धर्म :-संस्कृति का समानुपाति और सभ्यता का व्युत्क्रमानुपाती होता है। अर्थात धर्म = के गुणा संस्कृति / सभ्यता है, जहां के परिवेश है। Ie Religion is directly proportional to Culture and inversely proportional to Civilization. Rl= K.cu/cv. Where K is a constant represent ENVIRONMENT.