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Saturday, November 2, 2024

सनातन विचारधारा का व्यवहारिक प्रगटीकरण

सनातन विचारधारा का व्यवहारिक प्रगटीकरण ,आरंभिक पाषाण काल से शुरू होता है।जब अपने सुख-दुख की स्थिति को दूसरे से अवगत कराने के लिए मानव जमीन पर चित्र उकेर कर या मिट्टी की आकृति बनाकर साझा करते थे और समझाते थे।तब शब्द, भाषा,अक्षर से मानव अनजान था।। जिस रूप में सर्वाधिक आनंद मिलता था, उसकी दो स्थिति थी,१) संभोग और२ रा) प्रजनन क्रिया, इसमें महिला शरीर के उभार को क्रमशः परमानंद और परमेश्वरी‌ के भाव से कालांतर में संबोधित किया गया। परमानंद अर्थात पर+में+आनंद= परमेस्वर अर्थात पर+ में + स्व: (पराये में स्वयं को खोजना) और परमेस्वरी अर्थात पर+में+ स्व+री; इस संधि से अर्थ स्पष्ट है।कालांतर मे इसी स्व: से शव और शिव बना है।एक बात उभरती है कि मिट्टी या पत्थर के बने इन आकृतियों में तथाकथित ईश्वरीय या परम शक्ति /उर्जा या बल कैसे स्रृजित या संचयित हुआ? यहाँ पाश्चात्य पोलिटिकल थिंकर जे जे रुसो के उस कंसेप्ट को उल्लेखित करना पड़ेगा जिसमें उन्होंने कौमन विल और जेनेरल विल को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है। मैं यहाँ विल के जगह पर थौट को रिप्लेस करुंगा मतलब कौमन थौट और जेनेरल थौट से संबोधित करुंगा। 'समालक थियोरी ' के अनुसार थौट अर्थात विचार एक वाइटल फोर्स है। कारण कि परिवेश ( प्रकृति) से उत्पन्न मानव मष्तिक के विचार के अनुकूल मानव शरीर के अंदर और बाहर कार्य संपन्न होते हैं। कोई भी कार्य उर्जा द्वारा ही होता है।शरीर के अंदर के अंगों से रस का निषेचन होता है और अंंग कार्य संपन्न करते हैं, वहीं बाहरी अंग वाह्य वातावरण में कार्य संपन्न करते हैं। और जहाँ कार्य संपन्न होता है, उसका कारण उर्जा है,वह विचार है,वह भी वेव अर्थात तरंग के माध्यम से संचरित होता है। आनंन्द प्राप्ति को संबोधित इन्हीं तरंगों का एक बिन्दु पर निरंतर संकेन्द्रित स्थिति विशेष से जो प्रभाव उत्पन्न होता है वह विशिष्ट से विशिष्टतम की ओर बढ़ता है। कालांतर में यही उर्जवान आकृति परमेस्वर और परमेस्वरी है। यह स्थिति कड़ोरों अरबों वर्षों में मानव विचार से बनी है। यहीं से सभ्यता और संस्कृति का क्रमशः विकास हुआ है।उससे बनी सभ्यता एवं संस्कृति और उन के मूर्त रूप में संश्लिष्ट विचार तरंगों का निरंतर प्रवाह उन्हें जिवंत एवं सार्थक बनाता है। यही श्रद्धा का स्रोत है, जिससेे आस्था का निर्माण होता है। इसे अक्षुण रखने के लिए संतों मनिषिओं ने प्रकृति में होने वाली घटनाओं को देश, काल और परिस्थितियों के आनुकूल आधार बनाकर परमालयों का निर्माण किया। धर्म बने,पंथ व संप्रदाय आदि बने। कथा कहानी और मिथकों का निर्माण हुआ। शेष अब आप के सामने है। (क्रमशः ) मेरा मत :- पृष्ठ संख्या २- अब संदर्भ पर आएं :- आदि काल का प्रारंभ, जब जीव केवल महसूस करता था और आनंदित होता था, रेखा और मिट्टी से बने आकृति और आवाज से अपनी भाव / भावना और बात व्यक्त करता था,जब मानव का प्रादुर्भाव हो गया था, वह लगातार सुख और आनंद का परिवेश बनाये रखना चाहते थे, जहाँ उसे सबसे ज्यादा आनंद मिला, उस क्षण का मूर्तरूप देकर उसे पूजने लगा और उसमें आनंद ढूढने लगा, आनंद ढूढने का वही परिवेश और क्रिया ' सनातन 'है.और आगे बढ़ते बढ़ते आनंद मार्ग का निर्माण हुआ वह कालांतर में हिन्दुत्व कहलाया. उस चरमोत्कर्ष के बाद मानव शरीर में बदलाव आया जो प्रजनन् के पहले अर्द्धगोलाकार की आकृति के उभार में था, जीसे दूसरों को बताने के लिए मिट्टी के अर्द्धगोलाकार सकल दिया,उसका मूर्तरूप मिट्टी का बनाकर स्थापित किया, क्योंकि उसी से एक और जीव निर्मित हुआ. कालांतर में मुंह से निकले सहज आवाज माँ से ध्वनि रूप में निरूपित किया,अत: उसकी पूजा का प्रावधान हुआ. कालांतर में जिसे मातृ स्वरूप माना,जहाँ से अपनत्व का भाव हुआ और परिवार बना. यहीं से संस्कृति की शुरुआत हुई. परिवारों के बीच बढ़ते अपनापन से समाज बना, एक निश्चित और सुरक्षीत भूखंड में समाजों के समूह से कबिला बना आदि आदि.आज भी उस परम आनंद की आकृति भग-लिंग और उक्त अर्द्धगोलाकार की आकृति परम शक्ति के रूप का देवालयों में कमोबेश उसी आकार में पूजी जाती हैं. ३.मेरा मत:-SANATAN IS A LIFE STYLE OF HUMAN BEING & IT'S सभ्यता और संस्कृति का श्रोत और व्याख्या-पृष्ठ 4. A NEO PHILOSOPH प्रस्तावना --- आज से तीन से पांच विलियन वर्ष पहले, जब सूर्य का नाभिकीय विखंडन हो रहा था, ग्रहों का निर्माण हुआ. उसमें से जितने पिंड प्र -कृत हुए ( प्र संज्ञा पुं० [सं०] एक उपसर्ग जो क्रियाओं में संयुक्त होने पर 'आगे', 'पहले', 'सामने', 'दूर' का अर्थ देता है, विशेषणों में संयुक्त होने पर'अधिक', 'बहुल', 'अत्याधिक' का अर्थ देता है, जैसे, प्रकृष्ठ, प्रमत्त आदि और संज्ञा शब्दों में संयुक्त होने पर 'प्रारंभ' (प्रयाण), 'उत्पत्ति' (प्रभव, प्रपौत्र), 'लंबाई' (प्रवालभूसिक), है.) विखंडन के बाद उन ग्रहों के परिवेश को प्र-कृति कहा गया. अपनी मात्रा के अनुसार दूर दूर तक पहुँच कर अभिकेन्द्रीय और अपकेन्द्री बल के अनुकूल अपनी मात्रा को सीमित किया और moon बने, जिससे उन ग्रहों को एक निश्चित स्थान और स्थाईत्व मिला. उन्ही में से सूर्य से एक प्र- कृत पिंड को पृथ्वी कहा गया और उसके परिवेश को प्रकृति. वह परिवेश स्व- अस्फुर्त होकर संघनित हुए और अपने चारों तरफ से सूर्य की पहुँच तक सात निष्क्रिय गैसों का सात तल बनाए. अपने तल पर जल, ज्वालामुखी और पहाड़ बनाए. अपने तल पर तापमान को नियंत्रित करने के लिए एक कोशीय जीव बनाए. इसमें सबसे पहले उस एक कोशिश प्राणी से पौधे और जंगल उगे और तापक्रम अनुकूल होने पर जानवर आए. फिर दो पैरों वाले जीव बने और क्रमशः मष्तिक विकसित हुआ.. यह सब प्रक्रिया परिवेश/प्रकृति का स्व- अस्फुर्त कार्य था जो हजारों करोड़ वर्षों में हुआ है. यह काम कैसे हुआ, इसकी एक झलक " समालक दर्शन " में है आज देश के वुद्धि जीवी कला,साहित्य, विज्ञान और विज्ञानेत्तर विषयों के चरमोत्कर्ष पर हैं। नये नये आयाम स्थापित किया जा रहा है। जिसमें विज्ञान डार्क मैटर, माइक्रो/ मैक्रो ब्लैक होल, और ब्रह्माण्ड के क्षितिज के बाहर झांक रहा है कि क्या है? अब मानव उस मुकाम पर है,जहाँ से मानवता के सोच की दिशा बदलनी है। मानव का इतिहास आज कहाँ है! मानव का इतिहास "" मानव का इतिहास आज भी वहीं वहीं है, जिसका विकास आज भी वहीं की वहीं है। वही मइआ का गहबर गाँव में उसी तरह है, परमालय का मूर्त शिव भी उसी तरह है। पत्थर का बना वहीं, मिट्टी का यज्ञ में, आजू बाजू देख जमूरे, अलट पलट कर विज्ञानों में। गगन चांद सूरज तक तुम तो आज पहुंचे हो, और झलक ब्रह्माण्ड पार की, आज किये हो। अगर गुमान हो, परा ब्रह्म को सोंच सके हो, तो सोंचो पहले अपने मूल पर कहाँ खड़े हो! "" यहाँ तरंग विचार का हीं रुपांतर है। विभिन्न तरंग के आधार पर विषय का नाम और उसके अंतर्गत अलग अलग शीर्षक का निर्धारण कैसे हो? साथ हीं उन तरंगों के कारण मष्तिष्क से कौन से रस का निषेचन होता है? गुण धर्म के आधार पर कला, साहित्य,विज्ञान और विज्ञानेत्तर विषयों के रस को जानना आदि आदि का विश्लेषण और निर्धारण करना जैसे विषय वस्तु का आकलन और अलेख ,एक बृहत्तर कार्य है, एक नये बल की खोज होगी,जो आज के विकसित होते विज्ञान का अगला पायदान होगा। न

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