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Thursday, January 25, 2024

6.9 "मेरा मत" ईश्वर की अवधारणा 9वां आलेख।

ईश्वर की अवधारणा के पांच फैक्टर हैं:- (१) विचार एक बल है। (२) सनातन जीवन शैली का परमालय में स्थापित परमानन्द और परमपींड की आकृति। (३) सनातन से पनपे वाद मसलन हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि का काल डिवीजन (४) परमानन्द आकृति में विचार बल का संश्लेषण और (५) कड़ोरों अरबों वर्षों तक उक्त संश्लेषण प्रक्रिया का निरंतर जारी रहना,जिससे एक नई उर्जा का प्रकटीकरण हुआ। मुख्यतः इन्हीं बिन्दुओं पर इस आलेख में विश्लेषण किया जाएगा। आज से २०००० साल पहले सनातन जीवन शैली को हीं हिन्दू हिन्दू कहा जाने लगा।तब वह हिन्दू प्रकृति परक जीवन पद्धति ही थी, सनातन का पर्याय हीं हिन्दू था।उस समय किसी भी धर्म की अवधारणा नहीं थी। सनातन को हिंदू कहनेवाले आज से २३०० वर्षों पहले मौर्य डयनेस्टी के बाद के सुन्ग डयनेस्टी के सम्राट पुष्यमित्र सुंग के कार्यकाल में या तीन चार सदी पहले धर्म शब्द की उत्पत्ति हुई।तब से इसे हिन्दू धर्म कहकर ढ़ोल नगाड़े पिटे जाने लगे। सनातन- हिन्दू और आज का प्रचलित धर्म- हिन्दू दोनों अलग अलग तरह का कन्सेप्ट है। धर्म- हिन्दू में इतिहास के यशस्वी रजाओं को देवता और दानव बनाया, और कहानियाँ लिखी जाने लगी। चुकि उसे जैनिज्म और बुद्धिज्म को दबाकर उक्त हिन्दू धर्म का प्रचार प्रसार करना था,इसलिए वे ऐतिहासिक और वर्तमान यशस्वी राजाओं को महिमामंडन करने के लिए हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का कवियों,लेखकों को प्रोत्साहित कर लिखवाया गया। इतना ही नहीं विशिष्ट तारा,ग्रहों, उपग्रहों को, खतरनाक और हिन्सक जानवरों को देवताओं और अत्यधिक उपयोगी पशुओं को उन कथाओं, ग्रन्थों में उचित स्थान दिये गए और समन्वित किया गया अधिकतर पशु प्राणी को उन देवी देवताओं का वाहन बना दिया। परमालय और बाद के आनंद बिहार के जैसा, बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण किया गया। मन+ दिर= मंदिर अर्थात मन का तात्पर्य विचार + "दिर'" शब्द से संबंधित परिणामबिना बिलंब के, तुरंत, शीघ्र, तत्क्षण, फ़ौरन ।बना।वहीं से मुर्ति पूजा की शुरूआत है। ए मूर्तियां देश काल, और परिस्थितियों के अनुरूप अलग अलग आकृतियों में निर्मित हुआ। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि मेरा छोटा बेटा विशाल, जब मैं मोतियाबिंद का आपरेशन करवाने नेपाल गया था तो वहाँ हनुमान जी की मूर्ति देखकर कहा था," डैडी, यहाँ के हनुमान जी का मुंह अपने यहाँ के हनुमान जी से अलग है !" यह सुनकर मैंने भी गौर किया और सोंचने लगा। खैर,यह सबकुछ कवि, लेखकों की कल्पना की देन है। वातावरण ऐसा निर्मित हुआ कि उन अकृतिओं में क्रमशः कड़ोडो़ं मानव की भावना और विचार-वल का संश्लेषण हुआ। विचार तरंगों एक बिन्दु पर इकट्ठा होते हीं एक नई उर्जा की उत्पत्ति हुई। इसे हीं ईश्वर, परमेस्वर, परमेस्वरी गौड गौडेस कहा जाता है। अतः यहाँ सुनिश्चित करना चाहिए कि बिचार एक बल है,जो तरंगों से संचरित होता है। यह बल किन परिस्थितियों में ईश्वरीय उर्जा में बदल जाता है,इसे समझने के लिए हिन्दुइज्म , जैनिज्म, बुद्धिज्म आदि विभिन्न मतों का काल विभाजन पर प्रकाश डालना आवश्यक है। सनातनी हिंदू की अवधारणा की मान्यता है कि शिव,विष्णु और ब्रह्मा का काल है।{ देखिए ब्रह्मा विष्णु शिव जी की वास्तविक उम्र ये है :ब्रह्मा जी – 72000000 (सात करोड़ बीस लाख) चतुर्युग,विष्णु जी- 504000000 (पचास करोड़ चालीस लाख) चतुर्युग और शिवजी- 3528000000 (तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख) चतुर्युग है।जैनिज्म मत के अनुसार काल- विभाजन जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि,हर वस्तु का मान,आयु,बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि,हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल के भेद - सुषमा-सुषमा काल, सुषमा काल, सुषमा-दुःषमा काल, दुःषमा-सुषमा काल, दुःषमा काल एवं दुःषमा-दुःषमा काल। ये छः भेद अवसर्पिणी काल के हैं। इससे विपरीत उत्सर्पिणी काल के भी छः भेद हैं। दुःषमा- दुःषमा काल, दुःषमा काल, दुःषमा-सुषमा काल, सुषमा-दुःषमा काल, सुषमा काल एवं सुषमा-सुषमा काल। (1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-सुषमा काल)।(2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा काल)।(3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-दुःषमा काल)।(4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (दुःषमा-सुषमा काल)।(5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा काल)।(6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा-दुःषमा काल) इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय होता है। वौद्धिज्म मत के अनुसार बुद्धिज्म में काल खंड- एक नियमित कल्प लगभग 16 मिलियन वर्ष लंबा (16,798,000 वर्ष) होता है, और एक छोटा कल्प 1000 नियमित कल्प या लगभग 16.8 अरब वर्ष लंबा होता है। इसके अलावा, एक मध्यम कल्प लगभग 336 अरब वर्ष का होता है, जो 20 छोटे कल्पों के बराबर होता है। एक महान कल्प चार मध्यम कल्प या लगभग 1.3 ट्रिलियन वर्ष है। यजिदी के अनुसार यजीदी धर्म प्राचीन विश्व की प्राचीनतम धार्मिक परंपराओं में से एक है। यजीदियों की गणना के अनुसार अरब में यह परंपरा 6,763 वर्ष पुरानी है अर्थात ईसा के 4,748 वर्ष पूर्व यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों से पहले से यह परंपरा चली आ रही है। मान्यता के अनुसार यजीदी धर्म को हिन्दू धर्म की एक शाखा माना जाता है।}उपरोक्त विभिन्न मतों के काल- खंडों का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक है, ताकि वर्तमान विज्ञान और पुरातात्विक विश्लेषण के आधार पर सभ्यता- संस्कृति का काल निर्धारण में ईश्वर की अवधारणा को व्याखायित करने में आज का विज्ञान उलझा हुआ है। उसे सही मार्ग दर्शन के लिए परमालय और परमानन्द की आकृति को स्मरण करना होगा। जिससे इन मतों के काल- खंडों के बीच समन्वय स्थापित करना होगा। क्योंकि सभी मतों में एक कौमन बात है कि सब में कड़ोडो़ं- अरबों वर्षों पहले का अभिमत है। और यहाँ {वेदों के अनुसार ईश्वर कौन है? वेदों के अनुसार वह शक्ति बल तथा क्रिया जिसकी वजह से संसार का निर्माण हुआ है वही ईश्वर है. क्योंकि वह शक्ति हमेशा से थी और हमेशा रहेगी इसलिए वह शाश्वत है. वेदों के अनुसार ईश्वर का सबसे उत्तम नाम ॐ है. ईश्वर वह शक्ति है जो बिना भेदभाव के कर्म के अनुसार प्रत्येक प्राणी जीव आदि को कर्म फल प्रदान करती है. . बुद्धिज्म में काल खंड- एक नियमित कल्प लगभग 16 मिलियन वर्ष लंबा (16,798,000 वर्ष) होता है, और एक छोटा कल्प 1000 नियमित कल्प या लगभग 16.8 अरब वर्ष लंबा होता है। इसके अलावा, एक मध्यम कल्प लगभग 336 अरब वर्ष का होता है, जो 20 छोटे कल्पों के बराबर होता है। एक महान कल्प चार मध्यम कल्प या लगभग 1.3 ट्रिलियन वर्ष है}। उपरोक्त { गुगल के सौजन्य से प्राप्त डाटा}सभी मतों और मान्यताओं के अनुसार जो सब में कौमन है:- (१) मानव का प्रादुर्भाव अरबों वर्षों पहले हुआ। वहीं से परमालय और परमानंद की आकृति के साथ परमपींड का उदभव है। वहीं बैठकर परमानंद के रोमांचक अवस्था तक पहुँचने के लिए विभिन्न मार्ग की खोज शुरू हुई। जिसके लिए आंखों और कान का सहारा लिया गया। आंख से दृश्य और कान से श्रव्य,और फिर दोनों के मिश्रण का सहारा लिया गया। जिससेे कला, संगीत और नृत्य का अविर्भाव हुआ। ये सब कुछ मूल प्रकृति की देन है, जब अक्षर/शब्द और भाषा नहीं था। यह सब अरबों खरबों वर्षों का क्रमिक विकास है। (२) सबका काल- विभाजन अपना अपना है। जिसमें सबसे पुराना सनातन हिन्दू का है। इसी का आधार लेकर ईश्वर की अवधारणा का विश्लेषण अगले आलेख में होगा। (क्रमशः) samalak.blogspot.com, Mo.No.+917209834500, लेखक- अनिल कुमार सिन्हा ,25/01/2024 email id-samalak1984@gmail.com पता-समालक सदन ,पुरनचंदलेन,कल्याणी , मुजफ्फरपुर-842001,बिहार,भारत।

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